पर्यटन स्थलों की बेकद्री, कैसे आएंगे यहां पावणे

झालावाड़. पुरा संपदा व पर्यटन स्थलों से झालावाड़ जिला आबाद है लेकिन जिम्मेदारों की अनदेखी से इन स्थलों की बेकद्री हो रही है।

झालावाड़. पुरा संपदा व पर्यटन स्थलों से झालावाड़ जिला आबाद है लेकिन जिम्मेदारों की अनदेखी से इन स्थलों की बेकद्री हो रही है। कहीं विरासत पर ताले लटके हैं तो कहीं पीने का पानी भी नहीं मिलता। इन पर पहुंचना भी बहुत मुश्किल भरा है। रास्ते में या तो आपको सड़क मिलेगी ही नहीं और कहीं तो यह झाडि़यों से घिरी हुई है। प्रसिद्ध गागरोन दुर्ग को यूनिस्को की विश्व धरोहर में शामिल किया था लेकिन यह तमगा मिलने के बाद भी इसकी कोई सुध नहीं ले रहा है। ऐसे ही भवानी नाट्यशाला है जिस पर ताले लटके रहते हैं। न तो यहां कोई कार्यक्रम हो रहे हैं और न कोई इसे देख पा रहा है। यही हालत पीपाजी पेनोरमा की हो रही है। यहां भी न कोई जानकारी देने वाला है और न ही साफ-सफाई करने वाला। ऐसे में कैसे कोई पर्यटक जिले के पर्यटनों को देखने आएगा। ज्यादातर स्थल पुरातत्व विभाग के अधीन है लेकिन जिले में इसका कोई भी नुमाइंदा नहीं है। किसी तरह की कोई परेशानी हो या जानकारी लेनी हो तो कोटा में ही संपर्क करना पड़ता है। वहां कोई मुखिया नहीं है। अजमेर वालों को ही कोटा का काम देखना पड़ रहा है। सरकार और प्रशासन अगर इन पर्यटन स्थलों की सुध ले तो ये पर्यटकों से आबाद हो सकते हैं। साथ ही जिले की अर्थव्यवस्था व लोगों को रोजगार देने में भी महती भूमिका निभा सकते हैं।

विश्व धरोहर का तमगा देकर गागरोन को भूले

यह उत्तर भारत का एक मात्र जल दुर्ग है। यह किला बिना नींव का है और चट्टानों पर बरसों से खड़ा है। गागरोन दुर्ग के निर्माण को 800 साल से अधिक हो गए हैं। इसके तीन ओर से कालीसिंध और आहू नदी का पानी बहता है। दुर्ग करीब 350 फीट लंबा है और यह गिरी और जल दुर्ग दोनों ही श्रेणियों में आता है। इसी खासियत के चलते इसे विश्व धरोहर में शामिल किया गया है। इस धरोहर को देखने के लिए पहले 20 रुपए लगते थे जो बढ़ाकर अब 50 रुपए कर दिए लेकिन यहां सुविधाएं बढ़ाने पर ध्यान नहीं है। पूरे परिसर में झाडि़यां व कचरा उगा हुआ है। यहां किले की जानकारी देने के लिए कोई गाइड नहीं है। यहां पहुंचने के लिए भी उखड़-खाबड़ रास्ते से गांव के बीच से होकर जाना पड़ता है। पर्यटकों के लिए यहां कोई सुविधा नहीं है। कभी-कभी तो पीने का पानी तक नहीं मिलता। बच्चाें के लिए यहां न कोई झूला है और न कोई पार्क।

पानी में गए करोड़ों

दुर्ग में आज से करीब चार साल पहले प्रथम चरण में करीब 2.84 करोड़ रुपए की लागत से दुर्ग में प्लास्टर सहित दीवारों की मरम्मत व दूसरे चरण में करीब 70 लाख रुपए की लागत से सोलर लाइट, बैंच, वाटर कूलर आदि लगाए गए, लेकिन ये सार-संभाल नहीं होने से बदहाल होते जा रहे हैं।

भवानी नाट्यशाला पर लटके हैं ताले

शहर के गढ़ परिसर में स्थित भवानी नाट्यशाला अपने आप में जिले की नायाब धरोहर है लेकिन इस अधिकांश समय ताला ही लगा रहता है। 16 जुलाई 1921 को पूर्व महाराज भवानीसिंह ने इसका निर्माण कराया था। यह नाट्यशाला ओपेरा शैली में बनी हुई है। ताले लगे होने से पर्यटक इसे देख भी नहीं पा रहे हैं। जानकारी के अनुसार भवानी नाट्य शाला के शुभारंभ समारोह में नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम की प्रस्तुति दी गई थी। करीब तीन मंजिला इस नाट्यशाला की खासियत है कि जितना बड़ा इसका स्टेज है उतनी ही बड़ी दर्शक दीर्घा है। वहीं स्टेज के आसपास तीन मंजिल तक झरोखे बने हैं जहां से भी दर्शक कार्यक्रम देख सकते हैं। यहां कई बड़े नाटकों का मंचन किया जा चुका है। कहते हैं कि नाटकों में दृश्य को जीवंत दिखाने के लिए स्टेज तक हाथी, घोड़े, रथ आदि को लाया जाता था। यह नाट्यशाला इको सिस्टम आधारित है, यहां माइक की भी जरूरत नहीं पड़ती थी।

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