मिट्टी खोदकर बनाए गए बंकरों में चले जाते थे ग्रामीण, चिमनी व लालटेन की रोशनी से चलाते थे काम

सरहदी जिले के रूपसी गांव निवासी कैप्टन आम्बसिंह ने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भाग लिया था। पत्रिका से बातचीत में उन्होंने बताया कि वर्ष 1971 के युद्ध में वे पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के बॉर्डर पर तैनात थे। उस समय उनकी उम्र 19 वर्ष थी और सैन्य प्रशिक्षण के बाद सपोर्टिंग टीम में उन्हें शामिल किया गया था। उन्होंने बताया कि सामने से आ रहे पाकिस्तान को खदेड़ कर हम आगे बढ़ रहे थे। हमारे बीच आपस में संवाद वायरलेस कम्युनिकेशन से ही संभव था। जहां तक 1971 के युद्ध के दौरान जैसलमेर की बात है, यहां शाम के समय बिजली आपूर्ति बंद कर दी जाती ताकि दुश्मन देश के लड़ाकू विमानों के हमले की आशंका को खत्म किया जा सके। खुले स्थानों में रहने वाले लोग जैसलमेर नगर के अलावा रामगढ़ आदि गांवों में मिट्टी खोदकर बनाए गए बंकरों में चले जाते। चिमनी व लालटेन की रोशनी से ही काम चलाया जाता। जैसलमेर के बाशिंदों ने 16 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल नियाजी द्वारा 90 हजार सैनिकों के साथ भारतीय सेना के साथ आत्मसमर्पण कर दिए जाने के अवसर पर जीत का जश्न मनाया। लोगों ने रेडियो के जरिए मिली इस शुभ सूचना का बाहें फैला कर स्वागत किया। उस समय जैसलमेर जिले के लोगों के दिलों में उठ रहा देशभक्ति का ज्वार और उत्साह की हिलोरें देखते ही बनती थी। 1971 के युद्ध में भारतीय सेना ने बाड़मेर से लगती सीमा पर आगे बढ़ते हुए पाकिस्तान के अनेक इलाकों को अपने कब्जे में ले लिया था।पाकिस्तान के छाछरा में भारत की तहसील कायम कर दी गई लेकिन किशनगढ़ बल्ज के रास्ते पाकिस्तान आगे बढ़ता हुआ जैसलमेर जिले के लोंगेवाला गांव तक आ गया। यहां भारतीय वायुसेना ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह बना दी। युद्ध के दौरान जैसलमेरवासियों ने अपनी सेना के प्रति पूरा विश्वास बनाए रखा और मनोबल को डिगने नहीं दिया। सेना के पायलट रोजाना जैसलमेर कलक्टर और नागरिक समितियों के हम प्रतिनिधियों को प्रतिदिन युद्ध के बारे में अपडेट्स दिया करते। संचार साधनों की न्यूनता के बावजूद शहर से गांवों तक के लोगों के बीच सूचना तंत्र सुदृढ़ था।