हर महिला ले सकती है घरेलू हिंसा कानून की मदद

हाल ही घरेलू हिंसा से संबंधित ‘एस विजिकुमारी बनाम मोवनेश्वराचारी सी’ मामले में उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय खंडपीठ ने कहा- ‘यह अधिनियम नागरिक संहिता का एक हिस्सा है जो भारत में हर महिला पर लागू होता है, चाहे उसकी धार्मिक संबद्धता तथा सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, जिससे संविधान के तहत सुनिश्चित उसके अधिकारों की अधिक प्रभावी सुरक्षा हो और घरेलू संबंधों में होने वाली घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की सुरक्षा हो सके।’ खंडपीठ ने यह टिप्पणी घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 (2) के तहत आवेदन स्वीकार करने के निर्देश के विरुद्ध अपील पर निर्णय देते हुए की।

शीर्ष न्यायालय का यह निर्णय ‘स्त्री अधिकार’ के संरक्षण की ही पैरवी नहीं करता, अपितु ‘सभी के लिए न्याय’ के सिद्धांत को प्रस्थापित करता है। यह निर्विवाद है कि घरेलू हिंसा किसी भी सभ्य समाज में पूर्ण रूप से अस्वीकार्य है। यूं तो हिंसा का कोई भी स्वरूप निंदनीय है परंतु घरेलू हिंसा के घाव जीवनपर्यंत रहते हैं क्योंकि आघात ‘अपनों’ से होता है। यही कारण है कि घरेलू हिंसा का प्रभाव शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर बहुत गंभीर होता है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या घरेलू हिंसा के पीडि़त को उसके ‘पंथ’, ‘लिंग’ अथवा ‘नस्ल’ के आधार पर न्याय मिलना चाहिए? भारत की शीर्ष अदालत निरंतर इस तथ्य को अपने अनेक निर्णयों से स्थापित करती आ रही है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 किसी पंथ की नियमावली से नहीं बंधी है अपितु यह ‘अक्षम’ व्यक्ति के ‘पक्ष’ में खड़ी है। एक समावेशी समाज की स्थापना का मूल लक्ष्य बिना किसी भेदभाव के समानता को स्थापित करना है।

उल्लेखनीय है कि धारा 125 में प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपना भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त साधन हैं, वह पत्नी, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण देने से इनकार नहीं कर सकता। वर्ष 2009 में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘भले ही एक मुस्लिम महिला को तलाक दिया गया हो फिर भी वह अपने पति से आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद भी जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती भरण पोषण की मांग कर सकती है।’ ‘शबाना बानो बनाम इमरान खान’ मामले की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की, कि ‘जब उसने संहिता के तहत अदालत में आना चुना है तब यह नहीं कहा जा सकता कि चूंकि वह एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला है। इसलिए इस आधार पर उसे कानून के अंतर्गत ऐसी इजाजत नहीं है।’ धर्म विशेष के आधार पर धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण पोषण का दावा क्या अस्वीकार्य है? इस प्रश्न का उत्तर 25 अप्रेल 1985 को ‘मोहम्मद अहमद बनाम शाहबानो बेगम’ मामले में शीर्ष अदालत ने दिया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से उल्लेेखित किया कि ‘हमने यह दिखाने का प्रयास किया है कि यह निष्कर्ष निकालने से कोई बच नहीं सकता है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला धारा 125 के तहत रखरखाव के लिए आवेदन करने की हकदार है।’

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 18 से 49 वर्ष की आयु के बीच की 29.3 प्रतिशत विवाहित भारतीय महिलाओं ने घरेलू हिंसा का अनुभव किया है। ‘द इंपैक्ट ऑफ डोमेस्टिक वायलेंस ऑन वूमेंस मेंटल हेल्थ’, ग्वेनेथ एल. रॉबर्ट्स, जोन एम. लॉरेंस, गेल एम. विलियम्स, बेवर्ली राफेल का शोध बताता है कि घरेलू हिंसा का मानसिक स्वास्थ्य पर भयावह प्रभाव पड़ता है। इसमें ‘पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अवसाद और आत्महत्या के विचार व प्रयास भी सम्मिलित हैं। इस तथ्य से भी कदापि इनकार नहीं किया जा सकता कि मौखिक अथवा शारीरिक हिंसा किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान को समाप्त कर देती है और ऐसी स्थिति में उसे अपना जीवन नैराश्य से घिरा हुआ प्रतीत होता है। इसलिए घरेलू हिंसा को हर हालत में रोका जाना चाहिए।

— ऋतु सारस्वत

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