आनंद मिश्र
अधिवक्ता, उच्चतम न्यायालय
हाल ही भारत के उच्चतम न्यायालय ने यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 से संबंधित एक बहुत महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया है। न्यायालय ने जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन एलायंस एवं अन्य बनाम एस. हरीश एवं अन्य के मामले में निर्णय देते हुए कहा है कि बच्चों से संबंधित अश्लील फिल्में उपलब्ध नहीं होनी चाहिए। अब ऐसा करना एक आपराधिक कृत्य होगा। उच्चतम न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना यह फैसला सुनाया। इस केस में न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि यदि किसी के पास बच्चों की अश्लील फिल्म (चाइल्ड पोर्नोग्राफिक फिल्म) है तो क्या वह धारा 15 के अंतर्गत अपराधी होगा, जो 3 साल तक की सजा एवं अर्थदंड का प्रावधान करती है।
उच्चतम न्यायालय ने पॉक्सो अधिनियम एवं सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के साथ-साथ कई अन्य अधिनियम एवं कई पुराने निर्णयों की समीक्षा करने के उपरांत अपना लगभग 200 पृष्ठ का महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया। न्यायालय ने कहा कि चाइल्ड पोर्न (बच्चों की अश्लील फिल्म) को रखना या किसी दूसरे के साथ साझा करना भी अपराध है। इसे वास्तविक रूप में किसी को बेचना, प्रचार-प्रसार या फिर व्यावसायिक लाभ कोई मायने नहीं रखता है। यदि किसी के पास ऐसी फिल्म पाई जाती है तो यह मान लिया जाएगा कि उसने ऐसी फिल्म इन्हीं में से किन्हीं एक या अधिक उद्देश्यों के लिए रखी है। यहां यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि ऐसी फिल्में व्यक्तिगत मनोरंजन का साधन नहीं हो सकतीं क्योंकि ऐसे घिनौने कृत्य को मनोरंजन का माध्यम नहीं बनाया जा सकता और यदि ऐसा होता है तो यह किसी भी समाज का निम्नतम पतन होगा, जहां से वह समाज कभी भी ऊपर नहीं आ पाएगा। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति बिना डाउनलोड किए इंटरनेट पर ही चाइल्ड पोर्न देखता है तो भी वह अपराध होगा और ऐसा देखना भी संग्रहण की श्रेणी में ही आएगा। पॉक्सो (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) अधिनियम, 2012 कई प्रकार से बच्चों को सुरक्षित करने का प्रयास करता है। इसकी धारा 11 के अनुसार केवल बलात्कार ही नहीं अपितु बच्चों को अनुचित प्रकार से छूना, उनके गुप्तांगों को छूना या उन्हें छूने के लिए प्रेरित करना या दिखाना या इसके बारे में अनुचित चर्चा करना ही नहीं, बच्चों को अश्लील चित्र या चलचित्र दिखाना भी दंडनीय है। अधिनियम मात्र बच्चों को सुरक्षित और कड़े दंड का प्रावधान ही नहीं करता है अपितु केंद्र एवं राज्य सरकारों को बाध्य करता है कि वह इस अधिनियम का प्रचार-प्रसार करे और लोगों को इसकी जानकारी दे जिससे की पीडि़त इसका सहारा ले सकें। यौन उत्पीडऩ मानव समाज की बड़ी त्रासदी है। प्रत्येक यौन उत्पीडऩ का केस मानव सभ्यता पर प्रश्न-चिह्न लगाता है, मुख्यतया तब जब वह किसी बच्चे के साथ हो। क्या मनुष्य वास्तव में सभ्य हुआ या फिर जानवरों से भी बदतर हो गया है? यौन उत्पीडऩ मात्र एक अपराध नहीं है, यह अपराधी की मानसिक विकृति का दर्पण है। यौन उत्पीडऩ मात्र शरीर पर ही नहीं, अपितु मन और आत्मा पर भी आघात है। जब यह अपराध बच्चों के साथ होता है तो यह सतत चलने वाला अपराध बन जाता है क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से अपराध भले ही कुछ समय पश्चात रुक जाए परंतु यह पीडि़त बच्चे के मन-मस्तिष्क पर अंकित हो जाता है। उसका जीवन नष्ट सा हो जाता है।
इस बात से कोई भी मना नहीं कर सकता कि फिल्मों का जनमानस पर बहुत ही गहरा असर होता है। अश्लील फिल्मों के कारण यौन उत्पीडऩ जैसे अपराध बढ़ते हैं। 2019 में छपे साइंस डायरेक्ट की रिपोर्ट के अनुसार, पोर्न देखने वालों में 88 प्रतिशत से अधिक लोगों के व्यवहार में शारीरिक एवं शेष में मौखिक आक्रामकता पाई गई। पोर्न न सिर्फ मानसिक विकृति उत्पन्न करता है बल्कि यौन परिकल्पनाओं को भी जन्म देता है जो ऐसे अपराध को करने के लिए प्रेरित करती हैं जिससे कई परिवार एवं पीढिय़ां नष्ट हो जाती हैं। इस परिदृश्य में उच्चतम न्यायालय का 23 सितंबर का निर्णय और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस निर्णय का समाज को संपूर्ण लाभ सही मायने में मिले, इसके लिए आवश्यक है कि अधिकांश लोगों को इसका ज्ञान हो जिससे कि वे ऐसे अपराध करने से बच सकें और जो अपराधी हैं, उनको सजा भी मिल सके। सामान्यत: जब भी न्यायालय के समक्ष कोई मुद्दा आता है तो वह उन मुद्दों पर केवल अपना निर्णय देता है। ऐसा बहुत कम होता है कि न्यायालय उन मुद्दों की उत्पत्ति के कारणों को जानने में लग जाए और उन मुद्दों के संपूर्ण समाधान की कोशिश करे। परंतु बाल यौन शोषण के इस मुद्दे को सुलझाने के उपरांत लगभग 32 पृष्ठों में उच्चतम न्यायालय ने इस अभिशाप के कारणों, उनका समाज पर प्रभाव और उनके समाधान के कुछ सुझाव भी दिए। न्यायालय ने कहा कि चाइल्ड पोर्न बाल यौन शोषण और उत्पीडऩ की तरफ बढऩे वाला पहला कदम है, जिसके परिणाम बहुत ही घातक और अंतहीन होते हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि संपूर्ण समाज इस बुराई के विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा हो जाए और दृढ़ता से इसके समापन के लिए युद्ध करे। न्यायालय ने सभी न्यायालयों को निर्देश दिया है कि आगे से वह किसी भी बाल यौन शोषण के मामले में ‘चाइल्ड पोर्न’ शब्द का प्रयोग न करके ‘बाल यौन शोषण सामग्री’ शब्द का प्रयोग करें।
जैसे ही किसी के पास ‘बाल यौन शोषण सामग्री’ पाई जाती है, कानूनी तौर पर यह मान लिया जाता है की उस व्यक्ति ने इसे किसी को बेचने, किसी दूसरे को भेजने या फिर व्यावसायिक लाभ के लिए रखा है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि कोई किसी को, उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई ‘बाल यौन शोषण सामग्री’ भेज देता है, जो कि वाट्सऐप या ईमेल पर संभव है, तो वह क्या करे? ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को या तो उस सामग्री को अपने पास से तुरंत नष्ट कर देना चाहिए या फिर तत्काल पुलिस को सूचना देनी चाहिए। एक बेहतर समाज बनाने के लिए बच्चों का सुरक्षित होना बहुत ही आवश्यक है। अत:, यह सब का दायित्व है कि बाल यौन शोषण को रोकें और ऐसी सामग्री को नष्ट करने में अपना सहयोग करें।