विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक
फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया की जूरी में एक भी महिला नहीं है। इसके बावजूद एक महिला द्वारा निर्देशित और महिला केंद्रित फिल्म का ऑस्कर की विदेशी भाषा श्रेणी में प्रविष्टि के लिए ऑफिशियल चयन वाकई उल्लेखनीय है। फिल्म फेडरेशन की जूरी के सामने आखिरी दौर में 29 फिल्में थीं, जिनमें ‘एनिमल’ और ‘कल्कि २८९८’ के साथ राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित मलयालम फिल्म ‘ओट्टम’ और कांस में सम्मानित पायल कपाडिया की ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ भी शामिल थी। जाहिर है जूरी के सामने उपयुक्त चयन की बड़ी चुनौती रही होगी। अंतत: असमिया फिल्मकार जानू बरूआ की जूरी ने ‘लापता लेडीज’ पर अपनी सहमति जताई। जूरी को ऐसी फिल्म चुननी होती है जो सारे पैमानों पर भारत का प्रतिनिधित्व करती हो। खासकर, जो भारत की सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति को दर्शाती हो। भारतीयता सबसे महत्त्वपूर्ण है। ‘लापता लेडीज’ इस मामले में सबसे आगे रही। वाकई इस दृष्टि से देखें तो ‘लापता लेडीज’ एक ऐसे भारत की छवि प्रस्तुत करती है, जहां गलत लोग हाशिए पर हैं।
पूरी फिल्म में एक ही गलत व्यक्ति दिखता है, प्रदीप। जो थोडा दबंग भी दिखता है, लेकिन यह भी दिखता है कि एक संवेदनशील थानेदार थाने में उसकी सारी हेकड़ी उतार देता है। किरण राव यह दिखाने में कहीं कंजूसी नहीं करतीं कि समाज पर नियंत्रण भले लोगों का है। यहां एक ऐसा भारत हमें दिखता है, जहां एक नवविवाहिता के रेलवे स्टेशन पर पति से बिछड़ जाने के बाद हर कोई उसकी मदद को तत्पर दिखता है। चाय की दुकान पर काम करने वाला छोटू, नकली लंगड़ा बन कर स्टेशन पर भीख मांगने वाला भिखारी, स्टेशन मास्टर और फिर स्टेशन पर चाय की दुकान चलाने वाली दादी तो है ही। एक जो भारतीय रेलवे स्टेशनों के बारे में पूर्वाग्रह बनाया गया है कि वहां चारों तरफ लुटेरे और समाजकंटक ही भरे होते हैं। ‘लापता लेडीज’ इसे खारिज कर वहां जीवन गुजार रहे लोगों से जुड़े भ्रम को तोड़ती है। यह कथा भले ही घूंघट के कारण अपने पति से बिछड़ जाने वाली नवविवाहिताओं की लगती हो, लेकिन है उससे अलग। यह कथा है उस जया उर्फ पुष्पा (प्रतिभा रांटा) की जो अपनी आगे की पढ़ाई के लिए अपने पति को छोड़ कर किसी अनजान के साथ भागने को तैयार है कि इस बंधन से निकल गई तो आगे के रास्ते वह निकाल लेगी। अद्भुत है नए भारत में पढ़ाई की यह जिद।
यह कहानी फूल की भी है, जिसे उसकी मां ने घर के काम तो सिखाए, लेकिन पढ़ाया नहीं, उसे अपने ससुराल का नाम तक याद नहीं। स्टेशन पर शरण के लिए वह जिस दादी के पास आई है, वह व्यंग्य में कहती है, तुम्हारी मां ने तुमको अच्छा नहीं बनाया बुडबक बनाया है। फूल बगैर किसी हिचक के कहती है, मुझे बुडबक नहीं बनाया, मुझे सिलाई करना, खाना बनाना, भजन कीर्तन करना आता है। किरण राव के निर्देशन का यह कमाल कि उसके इसी हुनर को उसकी ताकत के रूप में स्थापित किया जाता है। यहां बिछड़ गई महिला की ताकत के रूप में बस उसका हुनर और उसका स्वभाव ही दिखता है, जो मां ने उसे अच्छी लड़की के रूप में दिया था। वास्तव में शिक्षा को सीमित अर्थों में नहीं देखा जा सकता। ऑस्कर में हार-जीत के अपने गणित हैं। अभी खुश हो सकते हैं कि ‘लापता लेडीज’ के बहाने भारत की अच्छाइयां ऑस्कर की चयन समिति तक पहुंचेंगी।